विवाह को, बेटियों के जीवन का सिर्फ एक हिस्सा माना जाना चाहिए, लड़की के जीवन का एकमात्र लक्ष्य नहीं.

-रिंकू परिहार

विवाह को, बेटियों के जीवन का सिर्फ एक हिस्सा माना जाना चाहिए, लड़की के जीवन का एकमात्र लक्ष्य नहीं.

  1.  इससे दहेज़ देने के लिए विवशता कम हो जायेगी, शादी न हो तो ना सही पर, लालची दुल्हे को रिजेक्ट करना आसान हो जायेगा. बेटियों के जीवन में, बेटों की तरह और भी लक्ष्य होना आवश्यक है – पूरी आत्मनिर्भरता पाना इसमें सबसे पहले आता है.
  2.  यदि शादी जीवन का लक्ष्य न रहे, तो बेटियों के करियर पर भी उतना ही ध्यान दिया जायेगा जितना बेटों के करियर पर दिया जाता है. जो खर्चा ब्याह में किया जाता है, उस्क्प स्वाबलंबी बनाने में किया जाना चाहिए, चाहे कितना ही अच्छा रिश्ता क्यों न आये, उसे किसी पर आश्रित नहें होने देना चाहिए. उसे Cinderella की कहानी सुनाने के बजाये, कल्पना चावला, इंदिरा नूयी, इंदिरा गाँधी, सैना नेहवाल, सानिया मिर्ज़ा, किरण बेदी इत्यादि की कहानी सुनानी चाहिए.
  3.  माता-पिता व समाज को बेटी के जीवन के हर कदम पर उसकी शादी की फिकर रहती है, इसे वो ज़ाहिर भी करते रहते हैं. वो कैसी दिखती है, किससे बात करती है, कैसे कपडे पहनती है, कोनसे विषय चुनती है – इन सबसे उसके लिए रिश्ते आने पर क्या प्रभाव पड़ेगा.
    यह हानिकारक है, क्योंकि इससे लड़की को लगता है की शादी बिना (और शादी होने तक) उसका जीवन बेकार है. और शादी तो ही ही जायेगी करियर नहीं भी बना तो चलता है.   शादी तो लड़कों की भी होती है, पर उन्हें इस तरह की परेशानियों का सामना नहीं करना पड़ता, क्योंकि शादी उनके जीवन का एक हिस्सा मानी जाती है, उनका जीवन नहीं.
  4.  यदि उसकी शादी की तलवार सर पर नहीं लटकी रहेगी तो माता-पिता के लिए एक बेटी को पालना उतना ही सुखदायी हो जायेगा जितना एक बेटे को. उसे पनपने का मौका मिलेगा, और ससुराल व लड़के वालों का डर नहीं रहेगा – उदहारण – यदि वो शहर से बहार जाकर काम करना चाहे , या एयर होस्टेस या मॉडल बनना चाहे तो उसकी शादी की फिकर मैं उसे रोका नहीं जायेगा.

उसे अपने सपने साकार करने के लिए अपने सपनों को समाज के, और भविष्य में होने वाले ससुराल वालों के अनुसार ढालना नहीं पड़ेगा. यह माता-पिता व समाज के लिए बहुत अच्छा है, क्योंकि आत्मविश्वासी बेटियां व उनके साथ पलते उनके भाई हमारी सोच में बदलाव ला सकते हैं. उनके भाई जब घर में बहिनों को बराबर आदर पाते देखेंगे तो भविष्य में अपनी सहकर्मियों को अपने से कम नहीं समझेंगे.

यदि हम यह बदलाव नहीं लाते तो हमें बेटियों के जनम पर उनका स्वागत करने वाला समाज बनाने का खयाल छोड़ देना चाहिए.