महिलाओं को उनके संवैधानिक हक के साथ उचित सम्मान दिलाना ही महिला दिवस मनाना है ,परंतु क्या सही मायने मे हम इसमे सफल हो रहे है ?

– रिंकू परिहार  

प्रति वर्ष की भांति इस बार भी पूरा विश्व 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मना रहा है। सबसे पहले यह दिवस अमेरिका में 28 फरवरी 1909 में मनाया गया बाद में इस दिवस को फरवरी के अंतिम रविवार को मनाने की मंजूरी दी गई। 1910 में सोशलिस्ट इंटरनेशनल के कोपेनहेगन के सम्मेलन में महिला दिवस को मनाने की स्वीकृति दी गई । उस समय इसका प्रमुख उद्देश्य महिलाओं को वोट देने का अधिकार दिलवाना था, क्योंकि उस समय अधिकतर देशों में महिला को वोट देने का अधिकार नहीं था। 

खैर इसके इतिहास पर ज्यादा बात न करके मैं वर्तमान में महिलाओं की स्थिति पर चर्चा करना चाहूंगी। सबसे पहले प्रश्न उठता है कि क्या सिर्फ आज के ही दिन महिला सम्मान की बातें करने से महिला सम्मान की सुरक्षा हो जाती है या फिर यह महज एक ख़ाना पूर्ति ही है? कोई भी चीज तब तक उपर नहीं उठ सकती जब तक वह खुद ऊपर न उठना चाहे आज जरूरत इस बात की है कि महिलाएं ख़ुद अपने अस्तित्व को

पहचानने के लिए आगे आएं। बड़ी – 2 योजनाएं चलाई जा रही हैं बड़े-2 आयोजन किए जाते हैं लेकिन सवाल वहीं का वहीं है कि क्या हम इनमें सफल हो पाए? शायद  नहीं? अभी तक बहुत से घरों में एक महिला को परिवार में भी वह सम्मान नहीं मिल पाया जिसकी वह हकदार है। यह सच है कि समाज में बेटे बेटी का अंतर कम हुआ है तभी तो हम देखते हैं कि कई परिवारों में आज मां-बाप एक या दो बेटियों के जन्म पर परिवार नियोजन को अपना रहे हैं यह सब हमारी सोच में आए अंतर और महिला प्रोत्साहन के लिए चलाए जा रहे विभिन्न कार्यक्रमों की ही देन है।  

लेकिन समाज का एक तबका ऐसा है जो अभी भी दकियानूसी सोच से बाहर नहीं निकल पाया है इसका उदाहरण तब देखने को मिलता है जब एक महिला ही दूसरी महिला के शोषण का कारण बन जाती है कभी वह सास के रूप में बेटे की इच्छा पाले तो कभी पड़ोसन या रिश्तेदार की हैसियत से एक या दो बेटियां होने पर बेटे को जन्म देना जरूरी है का ज्ञान बांटते नजर आती है। यहां एक पुरुष अपने वर्चसव को बनाए  रखने व  अपना दोष छिपाने के लिए घर की महिला को आगे कर देता है जिससे  एक महिला ही  महिला के उत्थान में रूकावट बनती है लेकिन यहाँ जरूरत है की महिला अपने अधिकार को खुद पहचान कर अपनी आवाज बने ना की इस मर्दवादी समाज की कठपुतली जो मर्दों की बनाई हुई इसी कहावत को पूरी करने मे लगी रहे की “ एक महिला ही महिला की दुशमन है”  ।  

मुझे यह समझ नहीं आती की आखिर क्यों महिलाओं के सम्मान के लिए घोषित इस दिन का उद्देश्य सिर्फ महिलाओं के प्रति श्रद्दा और सम्मान बताना ही रह गया है। 

महिलाओं को यदि मताधिकार का अधिकार दे दिया गया है तो वह कोई अहसान नहीं किया वह उनका संवैधानिक अधिकार है। लेकिन महिला दिवस पर इस बात की चर्चा जरूर होती है कि इस दिन महिलाओं को मताधिकार का पुरस्कार दिया गया। इस अवसर पर महिलाओं को कोई राजनैतिक, तो कोई सामाजिक तो कोई आर्थिक समानता दिलाने की बात करता है लेकिन क्या हकीकत में यह सब संभव हो पाया है? शायद अभी नहीं। हम कभी पंचायत स्तर पर उनको आरक्षण देने की बात करते हैं कभी राज्य व देश की राजनीतिक व्यवस्थाओं में आरक्षण की बात करते हैं। यह ठीक है महिलाओं को भी इनमें जगह मिलनी चाहिए उनका भी उतना ही अधिकार है जितना एक पुरुष का। आज की महिला हमारे पुरुष प्रधान समाज में अपने दम पर काफी आगे निकल गई है और निकल रही है। पूरे विश्व में आज महिलाओं का डंका बजते देखा जा सकता है केवल एक या दो नाम ही नहीं सैंकड़ों नाम ऐसे है जो हमारे साथ-2 पूरे विश्व को गौरवान्वित करते हैं। 

इसी तरह मेरा मत महिलाओं के उत्थान के लिए कुछ अलग है जरूरी नहीं यह सभी का हो। बात करें राजनैतिक व्यवस्था में महिलाओं के आरक्षण को लेकर तो मेरा प्रश्न इतना है कि यदि देश के एक या दो राजनैतिक दलों के कारण महिला आरक्षण बिल पास नहीं हो पाया तो क्या बिना इस बिल के महिलाओं की भागीदारी संभव नहीं हो सकती। वास्तव में देखा जाए तो अंतर्मन से कोई भी दल नहीं चाहता कि महिलाओं को प्रतिनिधित्व मिले इसके पीछे का कारण है उनकी सोच। हमारी राजनैतिक जमात चाहे तो बिना बिल 33% क्या 63% हिस्सेदारी भी सुनिश्चित कर सकती हैं। यदि कोई माननीय किसी भी स्तर पर निर्वाचित होता है तो सर्वप्रथम उनकी सोच यही होती है कि उनकी राजनैतिक विरासत को उनका बेटा संभाले यदि किसी कारणवश यह संभव नहीं हो पाता तब वह अपनी बेटी को इसे सौंपने को तैयार होते हैं। 

आखिर क्यों वहां भी एक बेटे को तरजीह दी जाती है? जबकि आम जनमानस अपनी सोच को काफी हद तक बदल चुका है यदि किसी के एक बेटा और एक बेटी है वह तब यह नहीं सोचते की बेटा ही आगे बढ़े उनकी नजर में दोनों को बराबर मौके दिए जाएं यदि बेटी आगे बढ़ रही है तो उसे और प्रोत्साहित किया जाए फिर हमारे जनप्रतिनिधियों में यह सोच कब विकसित होगी देखने व सोचने वाली बात है। आज महिलाओं को आरक्षण नहीं समान एक परिवार की संपत्ति पर ज्यादातर अधिकार हम अपने बेटों का समझते हैं जबकि सामजिक और कानूनी तौर पर बेटियां भी उतनी ही हकदार है जितने बेटे। अंतर सिर्फ सोच का है बाकि कुछ नहीं।  

इसी तरह जब बात आती है घरेलू हिंसा व अत्याचारों की तो लगता है हम विकास करके उतना आगे नहीं बढे जितना पीछे हट गए। आए दिन बलात्कार, खौफनाक मौत और तरह-तरह से घरेलू प्रताड़ना, क्या इसलिए हम उन्नति कर रहे हैं। इन कृत्यों के पीछे जितने अन्य कारण दोषी होते हैं उससे ज्यादा दोषी है वह सोच जो ऐसा करने पर मजबूर करती है। ऐसे गुनाहों को अंजाम देने के लिए जिम्मेदार अपराधियों को सजा के लिए महिलाएं फांसी की सजा की मांग करती हैं लेकिन आखिर क्यों नहीं इसपर सहमति बन पाती? हट फिर कर बात वहीं आ जाती है कि यहां भी कानून बनाने में पुरुषों का ही बोलबाला है। आखिर हम कब तक ऐसे गुनाहों को आंख मूंदकर देखते रहेंगे। मां दुर्गा और काली मां की पूजा भारतवर्ष में होती है इसलिए हमारे देश में नारी को देवी भी कहा गया है। बस महिलाओं पर अत्याचार करते या होते देख पता नहीं हमारे मन से वह दुर्गा व काली मां कहां चली जाती है। अंत में इतना ही कहूंगी कि पिछले कुछ समय से महिलाओं की स्थिति में सुधार आया है वो पढ़ रही हैं आगे बढ़ रही हैं इसलिए हमें भी उनके इन प्रयासों में पूरी मदद करनी चाहिए तभी हम सही मायनों मे महिला दिवस मनाने के हकदार होगे ।  


एक छोटी रचना :-   

देखती हूँ रोज़ नन्ही बच्चियों की रेप की खबरें
कैसे कहूँ शुभ हो महिला दिवस?? 

चोरी छुपे अब भी मसली जातीं कलियाँ गर्भ में  
कैसे कहूँ शुभ हो महिला दिवस ?? 

बस में आज भी होती है छेड़खानी 
कैसे कहूँ शुभ हो महिला दिवस ?? 

डेल्टा , जीशा , गोरी  के हत्यारे आज भी हैं ज़िंदा 
कैसे कहूँ शुभ हो महिला दिवस?? 

धरती पर कोई जगह नहीं बची 
जहाँ पर ना होता हो रोज महिलाओं का अपमान 
केसे कहूँ शुभ हो महिला दिवस?