-रिंकू परिहार
जेंडर का ताल्लुक समाज में स्त्री-पुरुष के बीच गैर-बराबरी के आईने से है| यह अंग्रेजी के ‘सेक्स’ या हिंदी के ‘लिंग’ से अलग है| ‘सेक्स’ का संबंध महिला-पुरुष के बीच शारीरिक बनावट के फ़र्क से है| वहीं, ‘जेंडर’ का संबंध महिला-पुरुष के बीच सामाजिक तौर पर होने वाले फ़र्क से है| पितृसत्तात्मक समाज की संरचना जेंडर-विभेद पर आधारित होती है| जैसे – बेटे की चाह, कन्या-हत्या, स्त्री-पुरुष में भेदभाव व सामाजिक कामों में स्त्रियों का पुरुषों से नीचे का दर्जा| जेंडर हमें इन सभी सामाजिक-भेदभाव को समझने का नजरिया देता है| सरल शब्दों में कहा जाए तो यह एक इनफार्मेशन है, जो ज्ञान के रास्ते से होकर गुजरता है और हमें समाज में सोचने समझने का नजरिया देता है|
यह सत्य है कि स्त्री-पुरुष दोनों ही जैविक संरचना है| पर इनकी पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक व राजैनैतिक भूमिका का निर्धारण ‘जेंडर’ करता है| जेंडर, अस्मिता की पहचान का सबसे मूक घटक है जो हमें स्त्री व पुरुष की निर्धारित सीमा को परिभाषित करने और दुनिया को देखने के नजरिए की नाटकीय भूमिका को बताता है। यह केवल लिंगों के बीच के अंतर को नहीं बताता बल्कि सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक स्तर पर सत्ता से इसके संबंध को भी परिभाषित करता है|
ब्रिटिश समाजशास्त्री व नारीवादी लेखिका ऐना ओक्ले के अनुसार ‘जेंडर’ सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना है, जो स्त्रीत्व और पुरुषत्व के गुणों को गढ़ने के सामाजिक नियम व कानूनों का निर्धारण करता है। उनका मानना था कि जेंडर समाज-निर्मित है, जिसमें व्यक्ति की पहचान गौण होती है और समाज की भूमिका मुख्य।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, जैविक बनावट और संस्कृति के अंतरसंबंधों की समझ को अगर हम जेंडर पर लागू करें तो निष्कर्ष यही निकलता है कि महिलाओं के शरीर की बनावट भी सामाजिक बंधनों और सौन्दर्य के मानकों द्वारा निर्धारित की गई है। शरीर का स्वरूप जितना ‘प्रकृति’ से निर्धारित हुआ है उतना ही ‘संस्कृति’ से भी। इस प्रकार महिलाओं की मौजूदा अधीनता, उनकी जैविक असमानता से पैदा नहीं होती है बल्कि यह समाज में उनपर केंद्रित सामाजिक व सांस्कृतिक मूल्यों और संस्थाओं की ही देन है|
जेंडर की अपनी कोई मुकम्मल परिभाषा नहीं है| कुछ विद्वानों ने इसे भाषा के संदर्भ में देखा तो कुछ ने सामाजिक संदर्भों में| इसके अतिरिक्त जेंडर को इतिहास, संस्कृति, प्रकृति, सेक्स और सत्ता से जोड़कर भी देखनें व समझने का प्रयास किया गया। स्त्री के संदर्भ में हमेशा से यह माना गया है कि वह एक ‘ऑब्जेक्ट’ है|
हिंदी-प्रसिद्ध लेखिका महादेवी वर्मा लिखती हैं - ‘स्त्री न घर का अलंकार मात्र बनकर जीवित रहना चाहती है, न देवता की मूर्ति बनकर प्राण प्रतिष्ठा चाहती है। स्त्री और पुरुष, शरीर के केवल एक गुणसूत्र के अलग होने मात्र से हम स्त्री के व्यक्तित्व को पूर्णतः पुरुष से अलग कर देते हैं| जबकि ऐसा नहीं है यह शारीरिक संरचना भर है’|
समाज में स्त्री को हमेशा उन्ही अपराधों के लिए सजा दी जाती है, जिसकी जिम्मेदार वह खुद नहीं होती है। उसका स्त्री होना उसका नहीं, बल्कि सत्ता, समाज और संस्कृति की परवरिश रही है और उस परवरिश से उभरे गुण उसकी सीमा रेखा। जिसने जाने-अनजाने में उसे स्वयं के प्रति ही अपराधी बना दिया। फिर वह अपराध उसका सौंदर्य, शीलभंग, अवैध गर्भधारण व गर्भ में पुत्री की माँ होना ही क्यों ना हो, जिसने समाज के समक्ष उसे उपेक्षित व हास्यास्पद बनाया है।
यह सत्ता और समाज ही है जिसने हमें सिखाया कि लड़कियाँ नाजुक होती है, इसलिए उन्हें गुड़ियों से खेलना चाहिए और लड़के शक्तिशाली होते है, इसलिए उन्हें क्रिकेट और कबड्डी जैसे खेल खेलने चाहिए| इस तरह हम ‘शक्ति’ के इस तथाकथित पैमाने को अपनाने लगते है। जेंडर व्यवहार मूलक समाज-निर्मित है| इसमें केवल स्त्री ही शामिल नहीं है, बल्कि वह भी शामिल है जो मान्य लिंगों से अलग है, जिनमें पुरुष और स्त्री के समलैंगिक संबंध व उसमें आई जटिलताएं भी शामिल हैं।